मैं बदल रहा हूँ ,
कल जो मैं था वो शायद आज नहीं हूँ,
और जो मैं आज हूँ शायद वो कल नहीं रहूँगा
पता नहीं मुझे
पर शायद मैं बदल रहा हूँ,
या मैं बदल गया हूँ
पता नहीं मुझे
या फिर से बदलूंगा
पता नहीं मुझे
कल मैं तितलियाँ पकड़ता, घर के बगीचे के पत्ते तोड़ता छोटा सा बच्चा था
नटखट सा चंचल सा
थोड़ा सच्चा सा थोड़ा कच्चा सा
अपनों के प्यार में पिरोया हुआ
माँ के गोद में महफ़ूज़
मुस्कराता सा, ख़ुश सा,
सिकन्दर की तरह दुनियां जीतने का सपना था
अपनापन था ,घर था,माँ के हाथ का खाना था
पापा की डांट भी थी
माँ का प्यार था
बहनों का रुठना और मनाना
नानी का आँचल और मामाओं का दुलार
नाना जी की रेडियो पे बीबीसी न्यूज़
दादा जी के दिवाली के पटाखे का उपहार
ओर बुआ की चुगली
हलुवा थी, पूड़ी थी,चीनी भरी हुई रोटी थी,
सुबह की आँख खुलने पे मिलने वाली चाय थी
आलू का भुंजीया और गरम गरम पूड़ी थी
होली के रंग थे,
दिवाली के बम थे
राखी का धागा था
रसगुल्ला आधा आधा था
जीवन में चैन थी,
सुकून की नींद थी,
सुख भरी बातें थी
प्यार भरी थपकियां थी
त्यौहारों पे नए कपड़ों की आस
तैयार होके बन-ठन के घुमने का हमारा मिज़ाज !!
धूप की गर्मी थी
और पीपल का छांव भी
कुँए का पानी था
मोमबती की लाइट थी
खटिया की अकड़ थी
मिट्टी की ख़ुशबू थी
चाँद थे ,तारें थे,
और परियों की कहानियाँ भी !!!
पर आज शोर है, भीड़ है ,अकेलापन है
शोर और भीड़ में अकेलापन है
आईने और सपने दोनों पे धूल जमी है
कभी आईने की तरह सपने टूटे हैं
तो कभी सपनों के गुस्सा में आईना
मतलब,फरेब,झूठ के चंगुल में लड़खड़ा रही है ज़िंदगी
पता नहीं कहाँ ,किस ओर ले जा रही है ये ज़िंदगी !!!
दूसरे की तरह देख देख कर चीज़ें करते हैं अब
इन्सान का कन्धा अब सीढ़ियों की तरह इस्तेमाल करते हैं अब
शायद जितना जरूरत है बस उतना ही बोलते हैं अब
हर शब्द तौलते हैं,बिना हिचकिचाहट के झूठ बोलते हैं अब
मन में क्या, मुँह में क्या शायद खुद से भी हो गए हैं परे
खुद्दारी,भरोसा,इंसानियत, दोस्ती,प्यार पता नहीं ये कब के मरे
अब शायद फर्क नहीं पड़ता किसी के जीने और मरने में
हम शायद व्यस्त हैं अपनी महत्वकांक्षाओं को पूरा करने में !!!
रातें अकेले होती हैं,
आँसू से तकिये गीले होते हैं,
दिल टूटा होता है
कभी ख़ामोशी होती है
कभी मायुसी होती है
कभी गुस्सा होता है
कभी नफरत होता है
कभी दर्द होता है
कभी तन्हाई होती है
कभी किसी से दो पल बातें,प्यार की उम्मीद होती है
तो कभी इंतज़ार की घनी काली रातें होती है!!!
घर नहीं, मकान नहीं ,अब तो हवेली होती है
और हर बात अब बात नहीं ,अब केवल बकचोदी होती है
आस पास जो रहते हैं वो अब जानते नहीं हैं हमें
अपने भी अब लगने लगा है कम मानते हैं हमें
रातें भी अब खो गयी हैं
पता नहीं नींद भी कहाँ सो गयी है
न भूख लगती है न प्यास
न ही अब कोई जीवन में आस
गुम सा हो गया हूँ
कभी अपनी उलझनों में
तो कभी दूसरों के उलझने बनाने में
भटक सा गया हूँ
ख़ुद को समझने में, चीजें भुलाने में
पर पता नहीं मुझे अब कहाँ हूँ मैं
लेकिन ऐसा लगता है अब बड़ा हो गया हूँ मैं
मगर किसमें ?
शायद दुनियांदारी में, होशियारी में,ज़िम्मेवारी में, उधारी में
और शायद समझदारी में भी !!
शायद मैं बदल रहा हूँ,
या मैं बदल गया हूँ
पता नहीं मुझे
या फिर से बदलूंगा
पता नहीं मुझे
पता नहीं ये बदलाव सही है या गलत
ये बदलाव मुझे कहाँ ले जा रहा है
सही की तरफ या गलत की तरफ
मुझे ये भी नहीं पता
ये बदलाव मुझे मजबूत बना रहा है या कमजोर
मुझे ये भी नहीं पता
ये बदलाव मुझे सच्चा बना रही है या झुठा
मुझे ये भी नहीं पता
आज का बेबस या कल का समझदार
मुझे ये भी नहीं पता
उम्मीद बस इतनी है मैं ये समझ पाऊं…
अपना आज और अपना कल बदल पाऊं…
बेहद खूबसूरत कविता लिखी आपने भी।।।
कभी आईने की तरह सपने टूटे हैं
तो कभी सपनों के गुस्सा में आईना
एक से बढ़कर एक पंक्तिया एक ही कविता में जैसे गागर में सागर।।
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Koti koti aabhar aapka😃😃😃
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स्वागत आपका।।
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awsome poem awsome lines.
इन्सान का कन्धा अब सीढ़ियों की तरह इस्तेमाल करते हैं अब
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Thank you so much
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Thank you
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बढ़िया
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